
चेतना- प्रारब्ध या कर्म (भाग 3) उपन्यास
अगली शाम दादी मंदिर से आते ही शुरू हो गई, “क्या जमाना आ गया है राम-राम। मंदिर में पता लगा कि दो माह पहले मोहन असमय चल बसा। उसकी विधवा मधु के हाल देखने गई तो दंग रह गई। रंगीन साड़ी, माथे पर बिंदी, हाथों में चूड़ियाँ। कौन जाने कि उसका सुहाग उजड़ गया है। अब पति की जगह नौकरी भी लग गई है सो पंख लग गये हैं।
” चेतना सहज ही बोली, “किसी के चले जाने से जीवन थम तो नहीं जाता है ना दादी! अब जीना ही है तो आनंद से जिया जाये। अगर मधु काकी को कुछ हो जाता तो मोहन काका भी वैधव्य के नियमों का पालन करते। क्या औरत का विधवा होना इतनी बड़ी सजा है?” दादी का मुँह आश्चर्य से फिर खुला, “ऐसा ही मान लो बेटा। तभी तो तुम्हारी मंजू भुआ यूँ अकेले ही संयम से जी रही है। जवाई-सा के मरते ही मुझे कईयों ने कहा कि मंजू की दुबारा शादी कर दो।
बमुश्किल बीस की ही तो थी मंजू तब। पर हम माँ-बेटी ने इसे परमात्मा की इच्छा मान ली। सुख लिखा होता तो क्यों जवाई-सा परलोक सिधारते। भाग्य का लेख था।” चेतना ने आवेशित होकर बात काटी, “ये भाग्य का लेख नहीं हमारी कर्महीनता है कि हमने परिस्थिति को बदलने का प्रयास नहीं किया। सबको जीने का बराबर हक है। आपने भुआ के साथ अन्याय किया है दादी। क्या कोई पुरुष इस तरह रहता है एकाकी?” सुषमा और मंजू मूकदर्शक बने रहे, दादी बड़बड़ाती हुई अंदर चली गई।
अगली सुबह भुआ, चेतना और रविश तालाब वाले मंदिर में दर्शन के लिए गए। वे तीनों लम्बे अरसे बाद वहाँ आये थे इसलिए वहाँ आये परिवर्तन पर चौंक गए। तालाब में पानी के नाम पर कीचड़ बचा था। पेयजल के लिए दो हैंडपंप का सहारा था। दीपक वहीं मंदिर में मिल गया। चर्चा करने पर उसने बताया कि कुछ प्रभावशाली लोगों ने अवैध बोरिंग खुदवा रखे हैं सो उनका काम तो चल जाता है पर बाकी लोगों को अनेक परेशानियाँ आती हैं।
जब चेतना ने पूछा कि कोई वर्षा जल संग्रहण के साधन हैं तो दीपक ने अनभिज्ञता जता दी। वो खुद इस तरीके से अनजान था। उसने निकट वाली बावड़ी में झांक कर देखा तो उसमें भी प्लास्टिक की थैलियों के सिवा कुछ नहीं था। उसके चिंता जताने पर रविश हँसता हुआ बोला कि, “अपना अर्जित ज्ञान बाँटना शुरू न कर देना पर्यावरण विज्ञानी जी! एक तो अजीब से सब्जेक्ट लेती हो फिर यहाँ इतना खोद-खोदकर पूछ रही हो। जाओ, कोई कॉलेज ज्वाइन करो, करियर बनाओ, यहाँ कुछ नहीं होने वाला।” उसकी रहस्यमयी मुस्कान पर भुआ और दीपक उससे जानना चाहते थे कि क्या वाकई कोई सुधार संभव है क्या। उसके दिमाग में एक खाका बनने लगा।