
चेतना-हार्दिक स्नेह (भाग -2) उपन्यास
हार्दिक स्नेह
रात को खाने के समय पापा ने उसकी भावी योजना के बारे में पूछा तो वो बेफिक्री से बोली, “इतना थक गई हूँ पापा दिल्ली मेट्रो में धक्के खाकर कि अब ४-६ महीने तक सिर्फ रेस्ट।” माँ ने मक्खन लगी मक्का की रोटी उसे परोसते हुए कहा कि, “आज ही सब पूछ लोगे; मेरी सोनचिरैया को खाना तो ठीक से खा लेने दो; देखते नहीं कितनी दुबली हो गई है।
” रात को जब चेतना चेंज करके आई तो माँ ने टोक ही दिया, “बेटा, ये दिल्ली का गर्ल्स हॉस्टल नहीं है, जो तुम शॉर्ट्स, बर्मूडा और केप्री पहनो। अब तुम्हें यहाँ की सोसाइटी के अनुसार कपड़े पहनने होंगे; लोग क्या कहेंगे।” चेतना जोर से हंसकर बोली, “माँ; आपके लिए लोगों की पसंद का ज्यादा महत्व है या मेरे कम्फर्ट का। क्या सात साल में इस सोसाइटी ने कोई प्रोग्रेस नहीं की।” सुषमा ने जवाब दिया, “तुम्हें पता है ना बेटा! यहाँ जिन जातियों का बाहुल्य है।
वे आज भी ये बच्चों को मिडल पास करते ही खेती में या दूध बेचने में लगा देते हैं। दूसरी ओर पर्दा प्रथा, आटा-साटा, नाता प्रथा, बाल-विवाह जैसी समस्याएं जस की तस हैं। दीपक ने तो एम.ए. भी किया है। कुछ बच्चे हायर सेकेंडरी तक पढ़े हैं, मोबाइल, इंटरनेट का भी इस्तेमाल करते हैं। आरक्षण का लाभ भी लेना चाहते हैं पर बीस साल की उम्र आते-आते उनसे उनके खुले आसमान छीन लिए जाते हैं।”
तभी त्रिपाठीजी ने आकर बात में खलल डाला, “रात के बारह बज चुके हैं। चेतना! कल तुम्हारी दादी और भुआ आ रही हैं तुमसे मिलने। कल वीकेंड है तो शाम तक रविश बेटा भी आ जायेगा। उनसे बातें करने की एनर्जी तो बचा कर रखो बेटा।
” सुषमा तमककर बोली, “आपने मुझे नहीं बताया माताजी और दीदी कल ही आ रहे हैं। फिर तो मुझे सारी रात चेतना से बातें करनी हैं। वो दोनों तो मुझे रसोई तक सीमित कर देंगी। वैसे कितने महीने के लिए आ रही हैं दोनों?” त्रिपाठीजी हताश-से बाहर निकलते हुए बोले, “न जाने उनके प्रति तुम्हारा पूर्वाग्रह कब दूर होगा।” माँ-बेटी की बातें खत्म नहीं हो रही थीं पर दोनों बेमन से सोने का उपक्रम करने लगीं।
सुबह चेतना का बड़ा मन था कि जैसे बचपन में वो मोहल्ले का चक्कर लगाया करती थी वैसे ही अभी भी निकल पड़े। पर अब उम्र ने मर्यादा की एक रेखा खींच दी थी। दूसरे दादी व भुआ का भी इन्तजार था। भले ही माँ से उन दोनों की कभी नहीं बनी पर उस पर व रविश पर दोनों भरपूर स्नेह लुटाती थीं।
भुआ तो अपने हिस्से की सारी सम्पत्ति उसके व रविश के नाम कर चुकी थी। उनकी शादी के दो महीने बाद ही फूफाजी एक्सीडेंट में चल बसे थे। तभी से दोनों माँ-बेटी गाँव वाले घर में रह रही थीं। बच्चों के लिए दोनों जब भी यहाँ आतीं एकाध महीना तो राजी-खुशी बीतता फिर सुषमा के साथ अनचाहे ही ऐसी खटर-पटर होती कि फिर गाँव की बस पकड़ लेतीं। दोनों बच्चे और त्रिपाठीजी आज तक नहीं समझ पाए कि उनके बीच झगड़ा किस बात का है। पर राई का पर्वत कैसे बनता है, वे बखूबी समझ चुके थे।
तभी कॉल बेल बजी। चेतना ने दरवाजा खोला। एक बारह वर्षीय लड़का खुद से ज्यादा वजन के बर्तन उठाए खड़ा था। तभी माँ बोली, “अमर! आज दो लीटर छाछ भी देना। छाछ पिए बिना माताजी का खाना नहीं पचता।” माँ बर्तन लेकर किचन में चली गई। चेतना ने अमर से पूछा, “तुम स्कूल नहीं जाते? ये भारी बर्तन तुमसे उठ जाते हैं?
” अमर का जवाब था अभी छुट्टियाँ चल रही हैं। उसके जाने पर माँ ने बताया ये विद्या का सबसे छोटा भाई है। तभी चेतना को याद आया कि जिस साल वो दिल्ली गई, उसी साल विद्या ने सेकेंडरी परीक्षा पास की। गुर्जर मोहल्ले की वो पहली लड़की थी जिसने सेकेंड डिवीजन प्राप्त करके पढ़ाई जारी रखी।
“माँ विद्या की भी शादी हो गई या उसने पढ़ाई पूरी की?” माँ की आवाज तरल हो गई, बोली “क्या कहें बेटा! इतनी होनहार और जुझारू लड़की को परिवार वालों की जिद लील गई। हायर सेकेंडरी के बाद उसने नर्सिंग की ट्रेनिंग की; जॉब करने लगी, परिवार का सहारा बनी। और वे ही लोग उसकी कोमल भावनाएं न समझ पाए।
” चेतना विस्मय से माँ को सुने जा रही थी तभी बाहर ऑटो रुकने की आवाज आई। वह चहकते हुए दादी व भुआ का स्वागत करने गई। दादी ने कसकर उसे गले लगा लिया और भुआ की भीगी पलकें उनके हार्दिक स्नेह की गवाही दे रही थीं। शाम को रविश भी आ गया। भरे-पूरे घर में ठहाके गूँज रहे थे।