
चेतना-(भाग -1 ) (उपन्यास)
चेतना (लघु उपन्यास)
माँ का आंचल
दिल्ली से जयपुर की फ्लाइट के दौरान चेतना छह बार घड़ी देख चुकी और तीन बार अपनी भीगी पलकें पोंछ चुकी थी। चालीस मिनट की यात्रा को कतई लंबा नहीं कहा जा सकता, पर पूरे सात वर्ष बाद वो अपनी पढ़ाई पूरी करके अपने घर स्थाई रूप से रहने जा रही है।
‘स्थाई’ तो कहाँ; घरवालों को अब उसकी शादी की जल्दी जो लगी है। उसकी बचपन की सखियाँ तो एक-दो नन्हें-मुन्नों की माँ भी बन चुकी हैं। उसके छोटे-से गाँव जयसिंगपुरा के लोगों का दिल भले ही बड़ा हो, पर आज भी वे अपनी परम्पराओं को छोड़ नहीं सकते।
सात वर्ष तक उसने पढ़ाई में खुद को डुबो-सा दिया। सिविल व एनवायरन्मेंट में इंजीनियरिंग, फिर मास्टर्स और फिर पीएचडी; उसके जुनून का परिणाम थे, पर राजधानी ने उसे बहुत-से कटु अनुभव व असुरक्षा के भाव दिए थे। शायद इसीलिए उसका गाँव आज भी उसे माँ के आंचल सा सुरक्षित लगता था।
न जाने अब उसकी नई कर्मभूमि कहाँ होगी, पर बार-बार ये पलकें तो खुशी के मारे भीग रही थीं। उसने चोर नजर से आस-पास देखा कि कोई उसे देख तो नहीं रहा, पर सच तो ये है कि फ्लाइट में सफर करने वाले यात्रियों का वर्ग निरा भौतिकवाद का पुतला होता है। वे जितना जमीन से ऊपर आसमान में उड़ते हैं, मानवीय संवेदनाओं से उतना ही अलग होते जाते हैं।
उनका उच्च होने का दंभ उन्हें सहयात्री को देखने तक नहीं देता, वहीं ट्रेन के स्लीपर क्लास में अजनबियों से भी आत्मीयता मिलती है। उसके वकील पिता ने उसकी सुविधा के लिए फ्लाइट में बुकिंग करवा दी थी। वो खुद कितनी उत्सुक थी जयसिंगपुरा पहुँचकर वहाँ के हाल-चाल जानने को।
उसे पता था आशा, निर्मला, दीपक, जमना काकी, रामजी काका सब उसके स्वागत के लिए उसके घर ही होंगे। मोहल्ले में एकमात्र उनका परिवार उच्चवर्गीय ब्राह्मण था, बाकी सब राजस्थानी अनुसूचित जाति व पिछड़े वर्ग में आते थे। पर उसके माँ-पापा की ऊँची सोच कभी इंसानियत के आड़े नहीं आई।
उनके छोटे-मोटे कानूनी झगड़े तो पापा कोर्ट पहुँचने से पहले ही चुटकी में सुलझा देते थे। कितना मान देते थे वो सब माँ-पापा को। वो उत्सुक थी यह जानने के लिए कि हालात अब भी सात वर्ष पहले जैसे हैं या वक्त की रफ्तार ने वहाँ भी अपना आधुनिकता का मुलम्मा चढ़ा दिया।
उसका चिंतन व उत्सुकता थमने का नाम नहीं ले रही थी। इधर फ्लाइट में जयपुर एयरपोर्ट पहुँचने का अनाउंसमेंट हो रहा था। बस अब पन्द्रह मिनट और…वो माँ-पापा के पास होगी। फिर गाँव तक का सफर वे कार से तय करेंगे। रास्ते के नाश्ते के लिए माँ जरूर उसके पसंदीदा संपत के समोसे और माधो के पेडे लाई होगी।
इतनी परिपक्व होकर भी कभी-कभी वो बच्ची बन जाती है। रास्ते भर वो सवाल करती रही और माँ-पापा उसकी डिग्रियों पर गौरवान्वित होते रहे। अपेक्षा के अनुरूप उसे सब लोग घर पर प्रतीक्षा करते मिले। रुक्मिणी और रेशमा भी मायके आई हुई थीं। वे उसके लिए घर का बना मक्खन लाई थीं जो बचपन से उसे बहुत पसंद था।