योगमार्ग के नौ विघ्न

योगमार्ग के नौ विघ्न

गर विघ्नों ने पथ रोकने की ठानी है,

तो तीव्र वेग से बढ़ने की मैंने ठानी है,

व्याधि, स्त्यान, संशय, प्रमाद, आलस्य,

अविरति, भ्रांतिदर्शन, अलब्धभूमिकत्व,

अन्वस्थित्व अगर साधक को सताते हैं,

अभ्यास अगर वो सतत करे तो,

योगभूमि में उसके पैर ढृढ हो जाते है,

अगर वैराग्य का भी आलम्बन हो,

इन विक्षेपों के पाँव उखड़ जाते है.

 

पातंजलयोग दर्शन के समाधिपाद के 30वें सूत्र में योगमार्ग के नौ विघ्नों का विस्तार से वर्णन है. इनमें सबसे पहला हैव्याधि जिसका अर्थ है शरीर में किसी रोग के उत्पन्न होने से योगाभ्यास का अभ्यास बंद हो जाना.

दूसरा विघ्न है स्त्यान अर्थात साधना से जी चुराना उसके प्रति अकर्मण्य हो जाना.

तीसरे विघ्न का नाम हैसंशय जिसमें साधक ये भी सोच सकता है कि ये तो कठिन है, मुझसे नहीं होगा. या ये भी विचार उसके मन में सकता है कि मैं जो योग का अभ्यास कर रहा हूँ, इसका कोई फल मिलेगा भी या नहीं.

प्रमादइस चौथे विघ्न के शिकार बहुतसे लोग मिल जायेंगे. वे योग के साधन अपनाने में लापरवाही करते हैं. आलस्यवश अभ्यास से जी चुराते हैं.

आलस्यमन में तमोगुण की अधिकता होने से शरीर में भारीपन जाता है. आलस्य के कारण योगाभ्यास करने से साधना अनियमित हो जाती है. ये पांचवा विघ्न भी सर्वव्यापक है.

अविरतिअब अगर अभ्यास नियमित नहीं होगा तो शरीर इन्द्रियों की आसक्ति प्रबल होती जायेगी. वैराग्य का होना ही अविरति है.

भ्रांतिदर्शनइस सातवें विघ्न का अर्थ है योग के साधनों को ठीक से समझ पाना और उन पर संदेह करना. उन्हें हितकारी समझना बंद कर देना.

अलब्धभूमिकत्वयोग की भूमिका प्राप्त होने पर योगाभ्यास के प्रति विश्वास डोल जाना ही अलब्धभूमिकत्व है. साधक योगाभ्यास नियमित करे पर अपेक्षित फल मिले तो उसका उत्साह मंद पड़ जाता है.

अनवस्थितत्वसाधक योगासन तो कर रहा है पर कहीं पर चित्त का स्थित होना नवां विघ्न है. चित्त वहां लग ही नहीं रहा; बस भटक रहा हो तो ये भी अन्तराय है.

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