वर्तमान समय में षट्कर्म किस प्रकार उपयोगी है?

वर्तमान समय में षट्कर्म किस प्रकार उपयोगी है?

धौतिवस्तिस्तथा नेति त्राटकं नौलिकम तथा|

कपालभातिश्चतानि षट् कर्माणि प्रचक्षते ||

हठप्रदीपिका के अनुसार योग का आलम्बन लेने से पहले अपने शरीर की शुद्धि आवश्यक है. इसके लिए साधन बताये गये हैं. धौति, वस्ति, नेति, त्राटक, नौली कपालभाति. आप में से कई लोगों ने तो इनका नाम भी पहली बार सुना होगा. उन्हें इसकी विधि पता है और ही फायदे.

फिर ये प्रश्न उठाना स्वाभाविक है कि आज के विलासिता आधुनिकता के दौर में इनका क्या काम? इस पोस्ट में मेरे व्यक्तिगत विचार है. मेरा मानना है कि इसी दौर में इनकी ज्यादा जरूरत है जब हमारी दिनचर्या खानपान विकृत हो चुका है. आज हम पार्टीज के नाम पर शराब सॉफ्ट ड्रिंक पीने से, नॉनवेज खाने से कतई नहीं हिचकिचाते. श्रम में भी संतुलन नहीं है. पाँच दिन थककर काम करते रहते हैं और वीकेंड मस्ती के नाम पर या रेस्ट के नाम पर अपने शरीर को बुरी आदतों से विकृत कर लेते हैं.

इस आपाधापी के युग में संतुलन ख़त्म हो गया है. बच्चों को ही देख लीजिये. सामान्य वजन के बच्चे तो आजकल होते ही नहीं है. या तो जंक फ़ूड खाकर मोटे हुए या संतुलित आहार के अभाव में अत्यंत दुर्बल बच्चेबस दवाइयों के अधीन बचपन से ही कर दिये जाते हैं.

इन्हीं सब समस्याओं से निजात पाने का तरीका हैषट्कर्म. अब आपका सवाल होगा कि इन्हें योग्य गुरु के निर्देशन में करना चाहिये और वो गुरु मिले कहाँ पर? आजकल योग के साथ नैचुरोपैथी शब्द भी चलन में है. आयुर्वेद में भी ये क्रियाएं भिन्न नामों से मौजूद है. योग में जो गजकरणी या कुंजल नाम से जानी जाती है उसे ही आयुर्वेद में वमन कहा जाता है. अगर आप साल में एक बार बसंत ऋतु में वृहद् वमन करते हैं तो वर्षभर आपका वातपित्त कफ संतुलित रहेगा. बशर्ते आपने बाद में भी नियमसंयम से काम लिया हो.

यहाँ तक कि श्रीमदभगवद्गीता में भी बासी, झूठा और तामसिक भोजन निषिद्ध है पर हम रेस्तरां में या घर में भी फ्रिज में रखे खाने से कहाँ परहेज करते हैं? आज मैं कहीं भी जाने पर सॉफ्ट ड्रिंक, मसालेदार खाने के लिए मना कर देती हूँ. हो सकता है मेजबान को कुछ क्षणों के लिए बुरा लगे पर मैं कायम रहती हूँ. दूसरों की ख़ुशी के लिए अपने पेट को डस्टबिन बनाना कहाँ तक उचित है.

आर्ट ऑफ़ लिविंगके एक स्वयंसेवक द्वारा मुझे नेति वस्ति के पात्र आसानी से मिल गये. एक बार उनसे निर्देशन लेकर आप ये क्रिया आसानी से घर पर कर सकते हैं. आप किसी योग प्रशिक्षक के तत्वाधान में नौलि सीख सकते हैं. पर इसके लिए घर पर छोटेमोटे नियमित सूक्ष्म व्यायाम प्राणायाम द्वारा शरीर को लचीला बनाना श्रेयस्कर रहेगा. त्राटक का अभ्यास भी नियमित घर पर किया जा सकता है. एकाग्रता बढ़ाने के लिए ये सर्वश्रेष्ठ साधन है. हम इन शब्दों का अर्थ ध्यान से समझें तो कुछ भी जटिल नहीं रहेगा. ये षट्क्रिया हमारे दैनिक जीवन का अंग बनकर सिर्फ हमारा शरीर स्वस्थ रखेगी बल्कि हमें अपने भीतर अद्भुत शक्ति, ओज आनंद का संचार होता हुआ महसूस होगा.  

जैसे सालभर में हम एक बजट चैरिटी का, घूमनेफिरने का बनाते हैं वैसे ही साल में एकबार हम निर्धारित कर लें कि एक हफ्ते तक हम किसी योग शिविर में रहेंगे. पूरी तरह से वहां के वातावरण में स्वयं को ढाल लेंगे. कैवल्यधाम, पतंजलि आश्रम जैसी जगहों पर स्वास्थ्य लाभ के लिए जायेंगे. यहाँ स्वास्थ्य का अर्थ मात्र शारीरिक स्वास्थ्य से ही नहीं बल्कि मानसिक, भावनात्मक आध्यात्मिक संतुलन से भी है.

वर्तमान में हम कई बीमारियों के शिकार पर कारण से अंजान. योग के पास है हर बात का समाधान.

  योगश्चित्तवृत्ति निरोध:

  योगश्चित्तवृत्ति निरोध:

योग का हर विद्यार्थी इस सूत्र से ही सबसे पहले रूबरू होता है. अर्थ चाहे समझे पर रट जरूर लेता है. सूत्र तो होते ही हैं परीक्षण करके अपने दैनिक जीवन में अपनाने के लिए. ऐसा नहीं है कि महर्षि पतंजलि जी, स्वामी स्वात्माराम जी  सदृश विज्ञ जनों ने सहजता से ये सूत्र लिखकर पुस्तक रच दी. एकएक सूत्र के पीछे उनका गहन अन्वेषण, परीक्षण समर्पण निहित है.

नित्यप्रति हम ऐसे लोगों के संपर्क में आते हैं जो अपने क्षेत्र में दक्ष होते हैं. सब लोग उन जैसा बनना तो चाहते है पर ये कोई नहीं देखता कि उस मुकाम तक पहुँचने के लिए वो कितने अभ्यास से गुजरे होंगे. सचिन तेंदुलकर ने अपना सारा चैतन्य क्रिकेट को समर्पित कर दिया तभी वे कीर्तिमान गढ़ पाए. लता मंगेशकरजी का रियाज कितना नियमित उत्तम कोटि का रहा होगा कि वे अपने कोकिल कंठ से सुनने वालों को भावनाओं के ज्वार में बहा ले जाती है. उनके करियर की ऊँचाइयों से आकर्षित होने के बजाय अगर हम जमीनी स्तर पर वैसी मेहनत कर लें तो सफलता उतनी ही शिद्दत से हमारे पास भी आयेगी. जुनूं जगाना होता है भीतर. अपनी कर्मभूमि में उपवन उगाने की जिम्मेदारी सिर्फ हमारी है. हमें कभी भी अपनी शिथिलता या अकर्मण्यता का दोषारोपण किसी और पर नहीं करना चाहिये.

बस यही बात योग के विषय में भी सत्य है. अगर कोई किसी आसन को दक्षता से कर रहा है तो उसने अपने शरीर को इस लचीलेपन तक ले जाने में निसंदेह कड़ा अभ्यास किया होगा वो भी नियमित. अब सवाल आता है कि चित्त की वृत्तियों का निरोध किया कैसे जाये. इसका जवाब महर्षि पतंजलि ने समाधिपाद के 12 वें सूत्र में ये कहकर दिया है किअभ्यासवैराग्याभ्याम तन्निनिरोध:’ – चित्त की वृत्तियाँ स्वाभाविक ही भोगों की ओर आकृष्ट होती है; अगर उसे वहां से हटाना है तो अभ्यास वैराग्य द्वारा ही ये संभव है.

मन की चंचलता पर लगाम कसने के लिए उसे किसी एक ध्येय पर केन्द्रित करना ही अभ्यास है. कभी निराशा भीतर आने दें. अगर अभ्यास लम्बे समय तक करना पड़े तो भी उसे जारी ही रखें. मन को स्थिर रखने के लिए आप त्राटक या बैलेंसिंग पोज वाले आसन नियमित कर सकते हैं. आपकी एकाग्रता निश्चित ही बढ़ेगी. ये मेरा अनुभूत प्रयोग है. मन बेकार की बातों से दूर भागेगा. खानेकपड़ों की चर्चा, परनिंदा जैसी चीजें सहज ही मन से निकल जायेगी. सकारात्मक विचार आने लगेंगे. अपनी ही रचित कुछ पंक्तियाँ लिख रही हूँ:

धुन जब लगती है, व्यर्थ शून्य हो जाता है,

ध्यान बस ध्येय पर, बाकी गौण हो जाता है,

यूँ ही नहीं कोई व्यक्तित्व खास बनता है,

मेहनत लगती है, फिर लक्ष्य हासिल हो जाता है.

 योगमार्ग के पाँच विघ्न व इनकी निवृत्ति के उपाय

 योगमार्ग के पाँच विघ्न इनकी निवृत्ति के उपाय

दुःखदौर्मनस्यांगमेजयत्वश्वासप्रश्वासा विक्षेपसहभुव:’

पूर्व लेख में आप नव अंतराय के बारे में पढ़ चुके हैं. इन चित्तविक्षेपों के साथ ही योगमार्ग में पाँच विघ्न भी आते हैं. इन्हें हम विस्तार से अध्ययन करेंगे.

दुःखइसके तीन प्रकार है. आध्यात्मिक, आधिभौतिक आधिदैविक. आध्यात्मिक दुःख के अंतर्गत मन, इन्द्रिय या शरीर में जो पीड़ा होती है, विकलता होती है उसका कारण कामक्रोध व्याधि है. इस पीड़ा के लिए कोई बाहरी परिस्थिति जिम्मेदार नहीं होती. हम स्वयं अपनी मानसिक स्थिति के कारण दुखों को आश्रय देते हैं.

आधिभौतिक दुःख में बाहरी स्थिति, व्यक्ति, पशु, पक्षी, सिंह, व्याघ्र, कीड़े आदि तत्व उत्तरदायी होते हैं. इन भौतिक दुखों का कारण हमारा मन होकर ये बाहर के व्यक्ति हैं.

आधिदैविक दुःख का कारण मौसम की मार, दैवी घटनाएँ हैं. अर्थात ऐसी परिस्थितियाँ जो व्यक्ति के वश में नहीं होती. अभी बाढ़ या भूकम्प आना और जनजीवन को तहसनहस करना व्यक्ति के नियंत्रण में नहीं हैं. इन्हीं को दैवीय दुःख कहते हैं.

दौर्मनस्यइच्छाओं का मानव मन में आना सहज है पर सोचो अगर वे पूरी नहीं होती है तो मन कितना उदास हो जाता है. इसी उदासी का नाम दौर्मनस्य है.

अंगमेजयत्वशरीर के अंगों का कांपना ही अंगमेजयत्व है.

श्वासयोगमार्ग में श्वासों के संतुलन का बहुत ही महत्व है. साधक की इच्छा हो फिर भी बाहर की वायु जब उसके भीतर प्रविष्ट हो जाती है तो वह श्वास है. श्वास को रोकने पर उसका  नियंत्रण खत्म हो जाये तो उसे श्वास कहेंगे.

प्रश्वासइसमें साधक श्वास को भीतर रोककर रखने में सक्षम नहीं रह पाता है. उसकी इच्छा के बिना वायु बाहर निकल जाती है. भीतरी कुम्भक बाधित हो जाता है.

ये पाँचों बाधाएँ विक्षिप्त चित्त में ही आती है. समाहित चित्त तो इनसे पार पा लेता है. विक्षिप्त चित्त की पहचान होने के कारण इन्हेंविक्षेपसहभूकहते हैं.

योगमार्ग के विघ्नों को दूर करने के उपाय

योगमार्ग के विघ्नों को दूर करने के उपाय

पूर्व लेख में हम नव अंतराय पाँच विघ्नों के बारे में पढ़ चुके हैं. अब अगर कोई योगमार्ग पर आगे बढ़ना चाहता है और ये विघ्न समक्ष रहे हैं तो अवश्य विज्ञ जनों ने ऐसे उपाय भी सुझाये हैं जिनसे इन पर विजय प्राप्त की जा सकती है. समाधिपाद के 32, 33 34वें सूत्रों में हम इन्हीं उपायों से अवगत होते हैं.

तत्प्रतिषेधार्थमेकतत्वाभ्यासःअर्थात उन विघ्नों को दूर करने के लिए एक तत्व का अभ्यास करना चाहिये. विघ्न कैसे भी हो यदि हमने ईश्वर प्रणिधान का आश्रय ले लिया है तो निश्चय ही विघ्नों का शमन हो जायेगा. पर साथ ही अगर हमने एकाग्रता का आश्रय ले लिया तो स्वाभाविक ही हम उन बाधाओं को पार पा लेंगे. एकाग्रता वो कुंजी है जिससे हर तरह की सिद्धि पाई जा सकती है.

मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणाम सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणाम भावनातश्चित्तप्रसादनम|

 

साधक को नित्य जीवन में चार प्रकार के लोग मिलते हैंसुखी, दुखी, पुण्यात्मा, पापात्मा. इन लोगों के साथ अगर साधक समुचित व्यवहार करें तो उसका चित्त इन विघ्नों से प्रभावित नहीं होगा. साधक को सुखी लोगों के साथ मित्रता का व्यवहार करना चाहिये. उसे दुखी लोगों पर करुणा की भावना रखनी चाहिये. अगर पुण्यात्मा लोग मिले तो प्रसन्नता से उन्हें मिलना चाहिये. वहीँ अगर उसका टकराव पापी लोगों से हो जाये तो उनकी उपेक्षा कर देनी चाहिये. अगर कहीं जो वह पापी के साथ बहस, तर्क आदि करने लगे तो उसके चित्त में राग, द्वेष, घृणा, ईर्ष्या क्रोध जैसे विकार स्वत: ही जायेंगे जिससे उसकी साधना बाधित हो जायेगी.

प्रच्छर्दनविधारणाभ्याम वा प्राणस्य|

अगर प्राणवायु को बारबार बाहर निकालने, भीतर लेने का अभ्यास किया जाये तो भी चित्त निर्मल होता है. शरीर की 72 नाड़ियों का शोधन होकर शरीर चित्त मलरहित हो जाते हैं.

विभिन्न आसनों के सूक्ष्म अंतर

विभिन्न आसनों के सूक्ष्म अंतर

आजकल ज्यादातर लोग यूट्यूब पर वीडियो देखकर योगासन का अभ्यास करते हैं इसलिए कई समान लगने वाले आसनों का भेद वे समझ ही नही पाते. बालासन, मंडूकासन शरणागत मुद्रा सरीखे आसन वज्रासन में बैठकर किये जाते हैं, सामने की ओर झुकते हुए आपको श्वास बाहर छोड़ते हुए पहले अपनी कमर फिर वक्ष फिर गर्दन को जमीन की ओर ले जाना होता है फिर उठते समय पहले अपनी गर्दन फिर वक्ष अंत में कमर को ऊपर लाना होता है. पर इसका अर्थ ये नहीं है कि ये सब एक ही प्रकृति के आसन है. ये सभी सिर्फ अलगअलग अंगों को ध्यान में रखकर किये जाते हैं बल्कि इनके फायदे भी अलग है.

सबसे पहले हम बालासन के फायदों का विश्लेषण करेंगे. बाल यानी बच्चा. जैसे बच्चा कभी भी कहीं भी अपनी सुविधा के अनुसार आराम की मुद्रा में बैठ जाता है वैसे इसे करते समय वैसे ही आराम का अनुभव होता है इसलिए इसे बालासन कहते हैं. इसका नियमित अभ्यास करने से शरीर में रक्त प्रवाह बेहतर होता है. ये विशेष रूप से पेट के आंतरिक अंगों का मसाज करता है जिससे हमारी पाचन क्षमता बेहतर होती है.

अगर आपको कमरदर्द या बारबार थकान महसूस होने की शिकायत हो तो इसे करने से आपको राहत मिलेगी. मस्तिष्क शांत रहेगा.

मंडूकासनहिंदी में मंडूक का अर्थ होता है मेंढक. इस आसन को करते समय हमारा पोज मेंढक जैसा लगता है. डायबिटीज के रोगियों के लिए ये वरदानस्वरूप है. इसे नियमित करने से कमर, कूल्हे, घुटने एडियाँ मजबूत होती हैं. नियमित करने से हृदय स्वस्थ रहता है. फैट कम होता है और जिन्हें डायबिटीज नहीं है; नियमित करने से कभी इसकी शिकायत नहीं होती.

सूक्ष्म व्यायाम का महत्व

सूक्ष्म व्यायाम का महत्व

जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है कि सूक्ष्म व्यायाम हमारे शरीर के भीतर छोटेछोटे अंगों, मांसपेशियों आदि का व्यायाम है. जब तक हमारे ये सूक्ष्म जोड़ लचीले नहीं होंगे, हमारा शरीर आसन करने के लिए तैयार ही नहीं होगा. इसीलिए प्रार्थना के बाद सूक्ष्म व्यायाम ही करवाया जाता है. आजकल सामान्य भाषा में इसे स्ट्रेचिंग भी कह देते हैं.

कई लोग इसे नियमित करना ज्यादा जरूरी नहीं मानते है. लेकिन भले ही करने के नुकसान उन्हें स्पष्ट महसूस होते हो पर जब नियमित करने लगे तो फायदे जरूर पता चलेंगे. इसमें गर्दन से शुरू करके हाथ, कंधे, कमर, पांवों के सभी जोड़ों को आगेपीछे, दायेंबायें श्वासों के संतुलन के साथ घुमाना आगेपीछे करना होता है.

इसकी शुरुआत महर्षि कार्तिकेयजी महाराज ने की. बाद में इसे सही पहचान दिलाने का श्रेय इनके शिष्य धीरेन्द्र ब्रह्मचारी को है. यौगिक सूक्ष्म व्यायाम को सूक्ष्म शरीर पर लागू किया जाता है. कई लोग बहुत प्रकार की बीमारियों के शिकार हो जाते हैं और योगासन नहीं कर पाते पर सूक्ष्म व्यायाम आप किसी भी अवस्था में, बिस्तर पर बैठकर भी कर सकते हैं. जिन लोगों की मांसपेशियाँ लचीली नहीं है वे भी शुरुआत सूक्ष्म व्यायाम से ही करें तो बेहतर रहेगा.

इसके अनगिनत फायदों में प्रमुख है ये रक्त संचालन चयापचय को सुधारता है. शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली को मजबूत करने के साथ ही फेंफडों की क्षमता बढ़ाता है. सूक्ष्म शरीर पर इसका सबसे बढ़िया असर ये होता कि इससे सहनशीलता बढती है.  

अष्टांग योग का क्रमिक पालन क्यों आवश्यक है?

अष्टांग योग का क्रमिक पालन क्यों आवश्यक है?

ये तो निश्चित है कि हम अपने पूर्वजन्मों के कर्मों के अधीन ही शरीर, स्थितियाँ साधना का स्तर पाते हैं. वेदांत के अनुसार हम इस देह में जितना सफर तय करते हैं उससे आगे का सफर नई देह में शुरू होता है. तभी तो जुड़वाँ बच्चों तक के स्वभाव, आदतों क्षमता में अंतर देखा जाता है. अब आपको लगेगा कि अष्टांग योग में इन बातों की चर्चा क्यों?

मेरा व्यक्तिगत मत है कि जब कोई भी स्थिति चरम पर पहुँच जाती है तो फिर वो अपने शुरुआती दौर में जाने को बाध्य हो जाती है. प्लास्टिक का इस्तेमाल इतना बढ़ गया कि हम अपने दैनिक जीवन में चारों ओर इसी से घिरे हुए है. अब जब नुकसान हदें पार करने लगा तो हाथों में फिर से कपड़े का थैला नजर आने लगा है. ठीक इसी तरह आज जब बीमारियाँ हमारे शरीरों में घर बना चुकी है डॉक्टर भी योग का आश्रय लेने की सलाह देने लगे हैं. अब मजबूरी से ही सही लोग योगाभ्यास करने लगे हैं.

अब रोजाना एक घंटे किसी प्रोफेशनल क्लास में जाना ही तो पर्याप्त नहीं है. साथ में अगर अष्टांग योग का पालन किया जाये तो परिणाम बेहद सकारात्मक होंगे. पतंजलि द्वारा निर्धारित

यम

नियम

आसन

प्राणायाम

प्रत्याहार

धारणा

ध्यान

समाधि

ये आठ अंग क्रम से चलते हैं. अगर किसी की पाचन शक्ति चार चपाती पचाने की नहीं है तो उसे एक ही खानी चाहिये. बच्चे किस तरह से अपना आहार धीरेधीरे उम्र के अनुसार बढ़ाते हैं वैसे ही साधक को सबसे पहले ये जानना चाहिये कि उपरोक्त पहले पाँच बहिरंग साधन है अर्थात शरीर मन के स्तर पर कार्य करते हैं. शेष तीन अन्तरंग साधन है जो चेतना से जुड़ते हैं तभी आनंद की अनुभूति करवाते हैं जब पहले पाँच साधन सिद्ध हो जाये. प्राइमरी, मिडल, सेकेंडरी किये बिना सीधे उच्च शिक्षा में कैसे प्रवेश मिल सकता है?

हमें यम से शुरुआत करनी है. जिस प्रकार एक मजबूत इमारत के लिए नींव का सुदृढ़ होना जरूरी है वैसे ही साधनपाद के 30वें सूत्र में वर्णित अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य अपरिग्रह के पूर्ण पालन से ही हमें मेंटल हाईजीन मिल सकती है. आज कई संस्थाएं हैं जो निस्वार्थ भाव से लोगों की मानसिक शांति के लिए प्रयासरत है. व्यक्तिगत रूप से मैं ब्रह्मकुमारी का नाम लेना चाहूंगी. वहां रोजाना ध्यान ज्ञान से चित्त निर्मल करने की छोटीछोटी तकनीकें सिखाई जाती है जो काफी कारगर है. इसी तरह महर्षि पतंजलि द्वारा ये जो यमनियम निर्दिष्ट है; उनका उद्देश्य भी भीतर से मन की सफाई है. अगर आप अहिंसा को अपना चुके है तो आपके मन में गलती से भी कभी हिंसा की भावना नहीं आनी चाहिये. अगर आपने सत्य बोलने का संकल्प लिया है तो हर परिस्थिति में उसका पालन करना होगा. अस्तेय का अर्थ अंदर तक ये भावना गहरी पैठ जाये कि मुझे मन से भी किसी पराई वस्तु की इच्छा नहीं करनी है. ब्रह्मचर्य का अर्थ किसी भी व्यक्ति, वस्तु, स्थिति से बंधना नहीं है. अपरिग्रह अर्थात सिर्फ बाहरी चीजें जमा करने पर ही जोर नहीं देना बल्कि अपने मनमस्तिष्क में किसी के प्रति बुराई, ईर्ष्या, क्रोध, घृणा जैसी किसी भी भावना को टिकने नहीं देना है. मन को कूड़ेदान नहीं बनाना है. नित्य उसकी साफ़सफाई करनी है.

अब नियम की बात की जाये तो शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय ईश्वर शरणागति को ही नियम कहा गया है. इनके शाब्दिक अर्थ समझना ही पर्याप्त नहीं है. आजकल जो सफाई का ट्रेंड चला है वो लाजवाब है. लाइजोल, हार्पिक, हैण्डवाश सरीखे कितने प्रोडक्ट बाजार में हैं जो आपके घर को कीटाणुमुक्त बनाने का दावा करते हैं. घर में दो नौकर तो सिर्फ सफाई के लिए रखे जाते हैं जो टाइल्स, टॉयलेट, वाशबेसिन को चमकाकर रखते हैं. अब आपको अगर साधना के पथ पर आना है तो आप इसे शौच समझने की भूल करें. अगर मन में किसी के लिए दुराग्रह है, मैत्री की भावना नहीं है तो आपका घर, शरीर कपड़े चमकाना बेकार का श्रम है. पहले अपने मन को टटोलिये; उसे साफ़ करिये. रोजाना खुद से कहिये कि मुझे किसी की बुराई देखकर उसका चिंतन नहीं करना है.

उपभोक्तावाद के चलते संतोष तो दृश्य से गायब ही हो चुका है. महिलाओं पर ऐसे चुटकुले बनते हैं – ‘अलमारी भरी होने पर भी पत्नी कहती है कि मेरे पास पहनने लायक कपड़े नहीं है.’ ये बात पुरुषों बच्चों पर भी लागू होती है. ढेरों कॉस्मेटिक, मैचिंग जूतेज्वैलरी, शरीर की सफाई पर पानी की बर्बादीये सब सिर्फ पर्यावरण असंतुलन के लिए जिम्मेदार है बल्कि हमारे संतोष के लिए बड़ी चुनौती भी है.

गौधन, गजधन, वाजिधन, और रतन धन खान;

जब आवे संतोष धन सब धन धूरि समान|”

इस तरह हमें केवल बाहरी वस्तुओं का उपभोग धीरेधीरे कम करना है बल्कि मन से भी निवृत होना है. ज्यादा जरूरी तो यही है. कई लोग भगवा पहनकर संन्यासी होने का स्वांग करते हैं पर मन में संतोष होने की वजह से आधुनिक साधन आसपास जुटाकर रखते हैं.

तीसरा नियम तप है जिसके अंतर्गत सभी परिस्थितियों में सामंजस्य स्थापित करते हुए अपने धर्म का पालन करना प्रमुख है. शरीर स्वस्थ हो और हम लकीर पीटते हुए उपवास करके शरीर को कष्ट दें; ये तप नहीं है. घर का कोई सदस्य बीमार है और हम उसकी देखभाल करके पूजापाठ में तल्लीन रहें; उसे भी तप कहना संगत नहीं होगा. कोई अनुचित व्यवहार करे तो उसे क्षमा कर दें. इन विपरीत परिस्थियों को भी सहर्ष सहन करना ही तप है.

चौथा नियम स्वाध्याय है. स्व+अध्याय अर्थात स्वयं का अध्ययन. वैसे सामान्यतया इसका अर्थ शास्त्रों, धार्मिक पुस्तकों के पठन से है लेकिन वास्तविक अर्थ देखें तो अपने जीवन का अध्ययन ही उपयुक्त अर्थ है. रोजाना बैठकर दो घंटे तक किसी पाठ को दोहराने से बेहतर होगा हम अपना अवलोकन करें. जो कमियाँ हैं उन्हें दूर करें जो खूबियाँ है उन्हें निखारें. बस हो गया स्वाध्याय.

ईश्वर प्रणिधान: ‘निर्मल मन जन सो मोहि पावा; मोहि कपट, छलछिद्र भावा.’ बस ईश्वर की शरणागति पाने के लिए मन को निर्मल रखना है. नवधा भक्ति द्वारा शुद्ध चित्त से अपने इष्ट का चिंतन करना, तय विधान के अनुसार सहर्ष अपने कर्तव्यों का पालन करना ही पांचवा नियम है.  

इस प्रकार आपको अष्टांग योग को दैनिक जीवन में अपनाने के लिए तो कोई किताबें पढनी है, कोई भाषण देना है. ये अपनी इच्छाशक्ति की परीक्षा है जहाँ आपको खुद से वादा करना होगा. आप रोजाना सुबह उठते ही, दिन में दोचार बार और रात्रि को सोने से पहले खुद से ये वादा करें कि मैं अपने मन को स्वच्छ रखूंगी. जैसे अपना शरीर, कपड़े, घर आदि स्वच्छ रखती हूँ वैसे ही मन की भी समयसमय पर सफाई करूंगी. बीती कटु बातों को भुला दूँगी. अच्छी बातों का स्मरण करके अपना चित्त प्रसन्न रखूंगी. बस अष्टांग योग एक लक्ष्य के रूप में, एक आदत के रूप में आपके जीवन में उतर जायेगा.

योगासन सबके लिये

.योगासन सबके लिये

मेरी एक सखी का पाँच वर्षीय बेटा बेहद चंचल और नटखट है. उसका पूरा दिन उसी को सँभालने में समर्पित है. उसकी शैतानियों से उसकी स्कूल वाले तक बेहद परेशान है. पेरेंट्स मीटिंग के दौरान उसे बच्चे को योगमेडिटेशन करवाने की सलाह दी गई. ये सुनते ही बच्चे की नानी बिफर गई कि क्या हमारा बच्चा बीमार है.

इस उदहारण से दो बातें सामने आती है कि एक का नजरिया है कि एकाग्रता बढ़ाने और शांत रहने के लिए योगाभ्यास बेहद कारगर है. दूसरा ये कि बीमार लोगों को योगासन करना चाहिये. इस तरह ये तो स्पष्ट है कि वर्तमान आपाधापी के युग में जब भी कोई स्थिति नियंत्रण से बाहर हो तो योग ध्यान अंतिम अचूक अस्त्र होते हैं.

मुझे 14 साल की उम्र से अस्थमा है. अक्सर सुनती थी कि दमा तो दम के साथ जायेगा. ये नहीं कहती कि प्राणायाम से दवाईयां पूरी तरह से छूट चुकी है पर केवल कुछेक स्थितियों में ही लेनी पड़ती है. लेकिन प्राणायाम नियमित करो तो श्वास का भारीपन भी स्पष्ट महसूस होता है. योगाभ्यास से दमा, गठिया, कैंसर, हाई ब्लड प्रेशर, पीठ दर्द, हार्मोन असंतुलन, मधुमेह माइग्रेन जैसी समस्याओं पर नियंत्रण तो होता ही है साथ ही तनाव चिंता के स्तर को भी कम किया जा सकता है.

जिन बच्चों को एकाग्रता की कमी, कमजोर स्मरणशक्ति की समस्या है उन्हें बैलेंसिंग पोज जरूर करने चाहिये. पेरेंट्स इन चीजों पर मेहनत नहीं करके बच्चों को ट्यूशन भेजते है; पाठ रटवाते है लेकिन अगर उनकी डाइट योगाभ्यास पर ध्यान दें तो उन्हें आने वाले समय में इसका फायदा मिलेगा. एक साल के सिलेबस के लिए इतनी मेहनत और लम्बे समय के स्वास्थ्य के लिए कोई तैयारी नहीं. इसीलिए आजकल बच्चे बेहद आक्रामक होते जा रहे हैं. स्कूलों में योग सेशन नियमित रखना आज के समय की सबसे बड़ी मांग है.

इसलिए कभी कोई ये पूछे कि योगासन किस उम्र में करने चाहिये? ये हर देश, काल,परिस्थिति में केवल फायदा ही देंगे. ये बीमारों के लिए है केवल वृद्द्जनों के लिए बल्कि सबके लिए फायदेमंद है. हम किसी भी दिन कितना भी जरूरी काम हो दांत साफ़ करना, नहाना नहीं छोड़ते वैसे ही जिस दिन हमें ये समझ में गया कि योगासन भी मिस नहीं करना है; उस दिन हमने उत्तम स्वास्थ्य की ओर सधे कदम बढ़ा लिए हैं.

योगासन द्वारा मानसिक व आध्यात्मिक स्वास्थ्य की प्राप्ति

योगासन द्वारा मानसिक आध्यात्मिक स्वास्थ्य की प्राप्ति

वर्तमान में हममें से जो भी सुबह या शाम की सैर पर जाते हैं या जिम या एरोबिक्स जाते हैं उन्हें लगता है कि योगासन से ऐसा क्या विशेष फायदा होता है जो हमें अभी नहीं मिल रहा है. हमारी फिटनेस काफी बेहतर है. पर योगासन की तुलना अन्य गतिविधियों से करने वाले इसके मानसिक आध्यात्मिक स्वास्थ्य को नजरंदाज कर देते हैं.

योगासन में सबसे जरूरी है श्वासों पर नियंत्रण. हम हर पोजीशन बदलते हुए देखते हैं कि कब श्वास अंदर लेनी है और कब बाहर छोड़नी है. प्राणायाम में तो ये एकदम सध जाती है जिससे हम अपने विचारों पर, मन पर धीरेधीरे नियंत्रण स्थापित कर सकते हैं. योगासन के एक सेशन में प्रारंभ अंत प्रार्थना से होता है जिसमें ओंकार मन्त्रों के उच्चारण से हमारी उत्तेजना खत्म हो जाती है. योगनिद्रा में तो वो शक्ति है जो व्यक्ति को अनिद्रा जैसी पुरानी बीमारी से भी मुक्ति दिला देती है. भ्रामरी प्राणायाम भी गहरी निद्रा में अहम भूमिका अदा करता है.

मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति कर्मठ परोपकारी होता है. वो मन, वचन कर्म से किसी का बुरा नहीं चाहता. उसमें अहंकार नहीं होता. वो सदा सभी प्राणियों के हित का काम करता है. वो सर्वदा प्रसन्नमन और चुस्त रहता है.

वैसे ही आध्यात्मिक स्वास्थ्य की बात करें तो ये अनुशासित जीवन, शरीर मन की शुद्धता, क्रोध से मुक्ति, निर्भयता, संयम, त्याग की भावना, सभी प्राणियों पर दया जैसे गुणों का दिग्दर्शन करवाता है. ऐसे व्यक्ति के ये गुण साफ़ नजर आते हैं. वो सच्चा साधक होता है जो अपने व्यक्तिगत हित से ज्यादा परहित का चिंतन करे. योगासन नियमित करने से 72000 नाड़ियों का शोधन होता है और मन के विकार स्वत: ही दूर हो जाते हैं.

शरीर में प्राण के संचार कोनाड़ीकहते हैं नाड़ी में किसी प्रकार की रूकावट होती है तो प्राण के प्रवाह में अवरोध असंतुलन पैदा होता है जिससे व्याधि उत्पन्न हो जाती है. योगासन प्राणायाम नियमित करने से शरीर में प्राण का संतुलन बना रहता है. इससे शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक आध्यात्मिक स्वास्थ्य में वृद्धि होती है.

स्थितप्रज्ञ होने के फायदे

स्थितप्रज्ञ होने के फायदे

श्रीमदभगवदगीता में स्थितप्रज्ञ होने के महत्व पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है. अर्जुन ने स्थितप्रज्ञ होने के लक्षणों आदि से संबंधित काफी जिज्ञासाएँ प्रकट की है और श्रीकृष्ण ने बहुत सही तरीके से हमें समझाया है. दूसरे अध्याय के 54वें श्लोक में अर्जुन ने स्थिरबुद्धि पुरुष के विषय में चार प्रश्न किये हैं.

सबसे पहले तो हम ये समझ लें कि स्थित यानी जिसमें हलनचलन हो. प्रज्ञा यानी बुद्धि. मन में संकल्पविकल्प उठना आम बात है पर जब बुद्धि निर्णय दे देती है तो वही कर्म में आता है. इस तरह जिस व्यक्ति की बुद्धि अपने कर्मों के बारे में आश्वस्त है कि वे सही है. किसी तरह की दुविधा नहीं है तो बुद्धि को स्थिर कहा जायेगा. चंचलता का अभाव स्थिर है.

जैसे संकट को सामने देखकर कछुआ अपने अंगों को समेट लेता है वैसे ही स्थितप्रज्ञ इन्द्रियों के विषय से इन्द्रियों को हटा लेता है. अगर बुद्धि स्थिर होगी तो हम उचित निर्णय लेंगे. मानसिक शांति से जियेंगे. हममें क्रोध, काम जैसे विकार नहीं जागेंगे. हमारे नियमित जीवन में यही प्रयत्न होना चाहिये कि हम आत्मनियंत्रण के साथ जियें. किसी के कहे शब्द से अपने भीतर दुर्भावना पनपने दें. अपना चित्त सिर्फ अपने लक्ष्य पर स्थिर रखें. अपने मन का नियंत्रण अपने हाथ में रखेंगे तो हम वही बोलेंगे जो बोलना चाहिये, वही खायेंगे जो खाना चाहेंगे. कभी भी ये नहीं कह सकेंगे कि कंट्रोल नहीं हुआ.

योग की शक्ति

योग की शक्ति

नास्ति मायासम: पाशो नास्ति योगात्परमं बलम्|

नास्ति ज्ञानात्परो बन्धुर्नाहंकारात्परो रिपु:||

घेरंड संहिता के प्रथम उपदेश के सूत्र 4 में ये बात कही गई है जो हर देशकाल स्थिति में सटीक है. इसका अर्थ है कि माया के समान कोई बांधने वाला नहीं है; योग से बढ़कर कोई शक्ति नहीं है. ज्ञान से बढ़कर कोई मित्र नहीं है और घमंड से बढ़कर कोई शत्रु नहीं है.

माया का अर्थ हैआवरण. अर्थात जिसमें सच्चाई पर्दे में छिप जाती है और झूठ सच जैसा प्रतीत होता है. जो व्यक्ति माया के अधीन हो जाये वो कभी आत्मसाक्षात्कार नहीं कर सकता अर्थात उसे खुद में कोई दोष कभी दिखाई ही नहीं देगा. इसी तरह जिसने योग का आश्रय ले लिया उसे कोई हरा नहीं सकता. वो शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक बल का आगार शनैःशनैः बनता जाता है. योग का अर्थ है जोड़ना. इसमें व्यक्ति उन दिव्य शक्तियों आनंद से इस तरह जुड़ जाता है कि उसे वंचित या अलग नहीं किया जा सकता बशर्ते वो अभ्यास वैराग्य का आश्रय छोड़े.

ज्ञान जिसे हो गया उसका अंतर मौन इस तरह सध जाता है कि तो वो किसी को उपदेश देता है ही उसे किसी से सलाह मांगने की आदत रह जाती है. उसे ज्यादा बोलना बकवाद लगता है. उसे पुस्तकों अभ्यास से सच्ची प्रीति हो जाती है. अत: ज्ञान ही पथ प्रदर्शित करने वाला उसका मित्र बन जाता है. जब भी किसी ने अहंकार को अपना सारथी बना लिया तो निश्चित ही उसका जीवन रथ गर्त में जायेगा. घमंड वो नशा है जो व्यक्ति के सोचनेसमझने की शक्ति का ह्रास करता है. उसे सहीगलत के निर्णय लेने से शून्य बना देता है. रावण, दुर्योधन सरीखे अहंकारी चरित्रों का दुखांत हम जानते ही हैं.

हठयोग के नियम

हठयोग के नियम

जिन्हें भी हठयोग के मार्ग पर आना है उन्हें कुछ नियमों का पालन करना होता है. कुछ बातें है जो योग को नष्ट कर देती है. अत: उन्हें जानकर हम अपने रूटीन से बाहर निकाल सकते हैं.

अत्याहार: प्रयासश्च प्रजल्पोनियमाग्रह😐

जनसंग्श्च लौल्यम षड्भिर्योगो विनश्यति||

जो पेटू है अर्थात जिनका खाने पर नियंत्रण नहीं है; भूख से ज्यादा खाते हैं उन्हें योग में सफलता मिलना संदेहास्पद है. इसी तरह जो अपने शरीर को बहुत ज्यादा थका देते है. अत्यधिक शारीरिक श्रम करते हैं उन्हें भी योग मार्ग में बाधाएँ आती है. इसी तरह ज्यादा बोलने वाला, बकवास करने वाला व्यक्ति भी योगी नहीं हो सकता. जो अपने नियमों के प्रति बहुत आग्रह रखता है अर्थात ये कहें कि जिसमें लचीलापन नहीं है. जो हर हालत में अपने ही अनुसार चलता है उसे नियमाग्रही कहेंगे. पांचवां नकारात्मक तत्व है लोगों से ज्यादा संपर्क रखना. प्रत्येक योगगुरु एकांत सेवन की आज्ञा देते हैं. हालाँकि कई बार जब ध्यान के लिए बैठते हैं तो विचार ज्यादा सताते हैं. कारण कि जितने ज्यादा लोगों से मिलेंगे, उनकी अलगअलग आदतें और बातें हमारी स्मृति में रह जाती है और हमें साधना के समय विचलित करती है. अंतिम बाधा है मन की चंचलता. जिसका अपने मन पर ही नियंत्रण नहीं है वो क्या खाक योगमार्ग पर आगे बढ़ेगा.

ये सूत्र स्वात्माराम की हठयोगप्रदीपिका से संकलित है. पहले अध्याय के इस 15वें सूत्र में ये बातें है जिनसे योगी को दूर रहने का निर्देश दिया गया है. अगर छोटासा इन्द्रियनियंत्रण भी कोई नहीं कर सकता तो उसकी सफलता संदिग्ध है. हमारे रोजाना के जीवन में भी ये बात चरितार्थ होती है. हम कोई भी एकाग्रता वाला काम कर रहे हो और अगर हमने भोजन ज्यादा किया है तो आलस्य आएगा. संपर्क क्षेत्र बड़ा है तो किसी का भी फोन आयेगा और हम उन लोगों का चिंतन करने लगेंगे जिनके बारे में हर वक्त सोचना पागलपन है. कुछ स्त्रियाँ तो मात्र अपनी रिश्तेदारों, पडौसियों के गहनेकपड़ों का ही चिंतन करती रहती है.

वैसे मुझे तो ये बात सिर्फ योगमार्ग में ही नहीं जीवन के हर पड़ाव पर प्रेरक अनुकरणीय लगती है. इसलिए हमें अपने मन से बात करनी चाहिये कि क्या वो ये बाधाओं का त्याग करने के लिए प्रतिबद्ध है.

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